1. इफिसियों 5:25 – “हे पतियो, अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो जैसा मसीह ने भी कलीसिया से प्रेम करके अपने आप को उसके लिये दे दिया।”
2. उत्पत्ति 2:24 – “इस कारण पुरुष अपने माता–पिता को छोड़कर अपनी पत्नी से मिला रहेगा, और वे एक ही तन बने रहेंगे।”
3. नीतिवचन 18:22 – “जिसने स्त्री ब्याह ली, उसने उत्तम पदार्थ पाया, और यहोवा का अनुग्रह उस पर हुआ है।”
4. 1 कुरिन्थियों 13:4-7 – “प्रेम धीरजवन्त है, और कृपालु है; प्रेम डाह नहीं करता; प्रेम अपनी बड़ाई नहीं करता, और फूलता नहीं, वह अनरीति नहीं चलता, वह अपनी भलाई नहीं चाहता, झुँझलाता नहीं, बुरा नहीं मानता। कुकर्म से आनन्दित नहीं होता, परन्तु सत्य से आनन्दित होता है। वह सब बातें सह लेता है, सब बातों की प्रतीति करता है, सब बातों की आशा रखता है, सब बातों में धीरज धरता है।”
5. सभोपदेशक 4:9 – “एक से दो अच्छे हैं, क्योंकि उनके परिश्रम का अच्छा फल मिलता है।”
6. कुलुस्सियों 3:14 – “इन सब के ऊपर प्रेम को जो सिद्धता का कटिबन्ध है बाँध लो।”
7. 1 पतरस 3:7 – “वैसे ही हे पतियो, तुम भी बुद्धिमानी से पत्नियों के साथ जीवन निर्वाह करो, और स्त्री को निर्बल पात्र जानकर उसका आदर करो, यह समझकर कि हम दोनों जीवन के वरदान के वारिस हैं, जिससे तुम्हारी प्रार्थनाएँ रुक न जाएँ।”
8. इब्रानियों 13:4 – “विवाह सब में आदर की बात समझी जाए, और विवाह–बिछौना निष्कलंक रहे, क्योंकि परमेश्वर व्यभिचारियों, और परस्त्रीगामियों का न्याय करेगा।”
9. नीतिवचन 31:10 – “भली पत्नी कौन पा सकता है? क्योंकि उसका मूल्य मूँगों से भी बहुत अधिक है।”
10. 1 कुरिन्थियों 7:3 – “पति अपनी पत्नी का हक्क पूरा करे; और वैसे ही पत्नी भी अपने पति का।”
11. इफिसियों 5:33 – “पर तुम में से हर एक अपनी पत्नी से अपने समान प्रेम रखे, और पत्नी भी अपने पति का भय माने।”
12. नीतिवचन 5:18 – “तेरा सोता धन्य रहे; और अपनी जवानी की पत्नी के साथ आनन्दित रह।”
13. मत्ती 19:6 – “अत: वे अब दो नहीं, परन्तु एक तन हैं। इसलिये जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग न करे।”
14. श्रेष्ठगीत 2:16 – “मेरा प्रेमी मेरा है और मैं उसकी हूँ।”
15. 1 पतरस 4:8 – “सब में श्रेष्ठ बात यह है कि एक दूसरे से अधिक प्रेम रखो, क्योंकि प्रेम अनेक पापों को ढाँप देता है।”
16. मरकुस 10:9 – “इसलिये जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है उसे मनुष्य अलग न करे।”
17. नीतिवचन 12:4 – “भली स्त्री अपने पति का मुकुट है, परन्तु जो लज्जा के काम करती वह मानो उसकी हड्डियों के सड़ने का कारण होती है।”
18. रोमियों 12:10 – “भाईचारे के प्रेम से एक दूसरे से स्नेह रखो; परस्पर आदर करने में एक दूसरे से बढ़ चलो।”
19. मलाकी 2:14-15 – “इसलिये, क्योंकि यहोवा तेरे और तेरी उस जवानी की संगिनी और ब्याही हुई स्त्री के बीच साक्षी हुआ था जिससे तू ने विश्वासघात किया है। क्या उसने एक ही को नहीं बनाया जब कि और आत्माएँ उसके पास थीं? और एक ही को क्यों बनाया? इसलिये कि वह परमेश्वर के योग्य सन्तान चाहता है। इसलिये तुम अपनी आत्मा के विषय में चौकस रहो, और तुम में से कोई अपनी जवानी की स्त्री से विश्वासघात न करे।”
20. श्रेष्ठगीत 4:9 – “हे मेरी बहिन, हे मेरी दुल्हिन, तू ने मेरा मन मोह लिया है, तू ने अपनी आँखों की एक ही चितवन से, और अपने गले के एक ही हीरे से मेरा हृदय मोह लिया है।”
21. इफिसियों 4:2 – “अर्थात् सारी दीनता और नम्रता सहित, और धीरज धरकर प्रेम से एक दूसरे की सह लो।”
22. नीतिवचन 19:14 – “घर और धन पुरखाओं के भाग से, परन्तु बुद्धिमती पत्नी यहोवा ही से मिलती है।”
23. श्रेष्ठगीत 3:4 – “मुझ को उनके पास से आगे बढ़े थोड़ी ही देर हुई थी कि मेरा प्राणप्रिय मुझे मिल गया।”
24. 1 कुरिन्थियों 7:4 – “पत्नी को अपनी देह पर अधिकार नहीं पर उसके पति का अधिकार है; वैसे ही पति को भी अपनी देह पर अधिकार नहीं, परन्तु पत्नी का है।”
25. मत्ती 5:32 – “परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ कि जो कोई अपनी पत्नी को व्यभिचार के सिवा किसी और कारण से तलाक दे, तो वह उससे व्यभिचार करवाता है; और जो कोई उस त्यागी हुई से विवाह करे, वह व्यभिचार करता है।”
26. इफिसियों 5:21 – “मसीह के भय से एक दूसरे के अधीन रहो।”
27. नीतिवचन 31:28 – “उसके पुत्र उठ उठकर उसको धन्य कहते हैं; उसका पति भी उठकर उसकी ऐसी प्रशंसा करता है।”
28. 1 कुरिन्थियों 11:11 – “तौभी प्रभु में न तो स्त्री बिना पुरुष, और न पुरुष बिना स्त्री के है।”
29. कुलुस्सियों 3:18-19 – “हे पत्नियो, जैसा प्रभु में उचित है, वैसा ही अपने अपने पति के अधीन रहो। हे पतियो, अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो, और उनसे कठोरता न करो।”
30. यशायाह 62:5 – “क्योंकि जिस प्रकार जवान पुरुष एक कुमारी को ब्याह लाता है, वैसे ही तेरे पुत्र तुझे ब्याह लेंगे, और जैसे दुल्हा अपनी दुल्हिन के कारण हर्षित होता है, वैसे ही तेरा परमेश्वर तेरे कारण हर्षित होगा।”
31. श्रेष्ठगीत 8:7 – “पानी की बाढ़ से भी प्रेम नहीं बुझ सकता, और न महानदों से डूब सकता है। यदि कोई अपने घर की सारी सम्पत्ति प्रेम के बदले दे दे तौभी वह अत्यन्त तुच्छ ठहरेगी।”
32. 1 थिस्सलुनीकियों 5:11 – “इस कारण एक दूसरे को शान्ति दो और एक दूसरे की उन्नति का कारण बनो, जैसा कि तुम करते भी हो।”
33. उत्पत्ति 1:28 – “और परमेश्वर ने उनको आशीष दी, और उनसे कहा, “फूलो–फलो, और पृथ्वी में भर जाओ, और उसको अपने वश में कर लो।”’
34. याकूब 1:19 – “हे मेरे प्रिय भाइयो, यह बात तुम जान लो : हर एक मनुष्य सुनने के लिये तत्पर और बोलने में धीर और क्रोध में धीमा हो।”
35. श्रेष्ठगीत 1:15 – “तू सुन्दरी है, हे मेरी प्रिय, तू सुन्दरी है; तेरी आँखें कबूतरी की सी हैं।”
36. उत्पत्ति 24:64 – “रिबका ने भी आँखें उठाकर इसहाक को देखा, और देखते ही ऊँट पर से उतर पड़ी।”
37. 1 पतरस 3:1-2 – “हे पत्नियो, तुम भी अपने पति के अधीन रहो, इसलिये कि यदि इन में से कोई ऐसे हों जो वचन को न मानते हों, तौभी तुम्हारे भय सहित पवित्र चालचलन को देखकर बिना वचन के अपनी–अपनी पत्नी के चालचलन के द्वारा खिंच जाएँ।”
38. तीतुस 2:4-5 – “ताकि वे जवान स्त्रियों को चेतावनी देती रहें कि अपने पतियों और बच्चों से प्रीति रखें; और संयमी, पतिव्रता, घर का कारबार करनेवाली, भली, और अपने–अपने पति के अधीन रहनेवाली हों, ताकि परमेश्वर के वचन की निन्दा न होने पाए।”
39. फिलिप्पियों 2:3 – “विरोध या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो, पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो।”
40. 2 कुरिन्थियों 6:14 – “अविश्वासियों के साथ असमान जूए में न जुतो, क्योंकि धार्मिकता और अधर्म का क्या मेल–जोल? या ज्योति और अन्धकार की क्या संगति?”
ये आयतें स्वस्थ विवाह के लिए आवश्यक प्रेम, सम्मान, एकता और मसीह-केंद्रित नींव पर प्रकाश डालते हैं।